POLITICS : भगवाकरण की राजनीति या राजनीति में भगवाकरण ...

साधु-संतों व साध्वियों का इतनी संख्या में राजनीति में आना इस निष्कर्ष को प्रामाणिकता देता है कि इनके लिये "ईश्वर भक्ति” या अध्यात्म का आवरण सत्ता तक पहुँचने के साधन मात्र हैं। राजनीति के अंदर जाकर सत्ता में गहरी पैठ की इनकी लालसा यही प्रदर्शित करती है कि इनके लिये मंदिर और पूजा क़तई महत्वपूर्ण नहीं है और संसद में सब कुछ मिलता है।

भारत का सरल और भावुक जनमानस अगर वास्तविकता की ओर कुछ कदम बढ़ा सके तो आसानी से समझ सकेगा कि सिर्फ़ कपड़ों से महंत और साध्वी दिखने वाले ये लोग स्वयं भगवान की शक्ति पर ख़ुद भरोसा नहीं करते, क्योंकि भगवान की शक्ति और प्रभु सेवा में वाकई कोई आस्था होती तो ये लोग भगवान को छोड़कर सत्ता और शासन की ललक से राजनीति में नहीं आते।

ये लोग सांप्रदायिकता से सत्ता पर क़ाबिज़ भाजपा के लिये अपने संन्यासी स्वरूप की क़ीमत भी जानते हैं और इसीलिये भर सामर्थ्य उस क़ीमत को भुनाते भी हैं।

हिंदुत्ववाद” की घनघोर मार्केटिंग की मुहिम में आज इनका मॉडल सफल दिखता है, क्योंकि देश के लोग इनसे ये सवाल पूछने से डरते हैं कि ऐसे कैसे संन्यासी, जो चुनाव तो लोकतांत्रिक पद्धति से लड़ते हैं, लेकिन फिर सांप्रदायिकता भड़काने लगते हैं।

हमारी संस्कृति के नामचीन महर्षियों ने राजनीतिक पुरोधाओं के कई वंशजों को राजनीति की शिक्षा अवश्य दी, लेकिन साधु या महर्षि होते हुए स्वयं को तपशील ही रखा, सत्ताशील बनने का विचार नहीं किया।

आज के राजनीति लालायित साधु-साध्वियाँ स्वयं अपने विलास और सुविधाभोगिता से आगे बढ़कर, किस कोण से हमारी संस्कृति के धर्मध्वज रक्षक हैं, ये समझ पाना संभव ही नहीं !



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