इस प्रश्न के दो जवाब हैं एक नियमों पर आधारित दूसरा व्यवहारिक और सच्चाई के करीब : अकील अहमद अंसारी।
चुनाव आयोग के नियमों के अनुसार वर्ष 2013 के चुनाव में एक प्रत्याशी 16 लाख रुपए से अधिक खर्च नहीं कर सकता था फिर अगले चुनाव यानी साल 2018 में इसमें 12 लाख की वृद्धि करके इसे 28 लाख कर दिया गया इस बार 2023 के चुनाव में एक उम्मीदवार अधिकतम 40 लाख रुपए से ऊपर खर्च नहीं कर सकता ऐसा नियम है, उक्त खर्च में चाय-नाश्ता, टेंट-पंडाल और यहां तक कि फूल मालाओं का खर्च भी शामिल है.
चलिए मजाक बहुत हो गया अब आते हैं दूसरे और सही-सही उत्तर पर, जी हां हमारे देश में चुनाव आयोग, संविधान और कानून के नियमों को लोगों ने मजाक ही बना दिया है अतः यथार्थ की बात करें तो वास्तव में एक विधानसभा में प्रत्याशी 15 से 25 करोड़ खर्च करते हैं यह भी एक अनुमानित लागत है यदि कोई ऐसा सीट जो हाई प्रोफाइल हो तो उसमें 40-50 करोड़ तक उम्मीदवार खर्च कर देते हैं.आखिर इतना पैसा आता कहाँ से है?
कॉरपोरेट द्वारा चंदे से..
चुनाव के खर्चे की रक़म तीन स्तर पर प्राप्त होते हैं जिसमें ऊपर से नीचे आने पर सबसे पहले बड़े उद्योगपतियों द्वारा पार्टीयों को चंदा दिया जाता है, यह बड़ा अमाउंट होता है पहले तो यह थोड़ा बहुत पारदर्शी भी होता था परंतु अब इलेक्टोरल बॉन्ड के आ जाने से जो दल सत्ता में है उसे एक प्रकार से कहें तो काले धन को कानूनी रूप से चंदा प्राप्त करने का माध्यम मिल जाता है. राजनीतिक दलों के चंदे पर नजर रखने वाले ग़ैरसरकारी संगठन एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक राइट्स यानी एडीआर के आंकड़ों पर नजर डालें तो बीजेपी, कांग्रेस, एनसीपी, सीपीआई, सीपीएम, बसपा और तृणमूल कांग्रेस सहित अन्य दलों को कॉरपोरेट घरानों से करोडों रूपये चंदे के रूप में मिलती है. आपको आंकड़ों में ना उलझा कर बता दूं कि सबसे ज्यादा चंदा पाने वाली वर्तमान में राष्ट्रीय पार्टी बीजेपी है जिसे वर्ष 2021 में ढाई हजार करोड़ रुपए का चंदा मिलाना उक्त एजेंसी ने बताया जो कांग्रेस को मिलने वाले चंदे से 6 गुना अधिक है.
ऐसा नियम है कि 20 हजार तक के चंदे की रकम के लिए चुनाव आयोग को ब्यौरा देने का नियम नहीं है ऐसे में विभिन्न प्रकार के लोगों द्वारा बड़ी रकम को 20-20 हजार दिखा कर ब्लैक मनी को लीगल कर लिया जाता है.
दूसरा बड़ा स्रोत है प्रदेश से लेकर जिला स्तर के व्यापारियों द्वारा दिए जाने वाली रकम..
दो टूक बात करें तो यदि आप कांग्रेस-भाजपा जैसे बड़े राजनैतिक पार्टियों से बस टिकट भर प्राप्त कर लें फिर आपके पीछे पैसा लगाने वाले व्यापारी मिल जाएंगे इनसे बड़ी मात्रा में चुनावी खर्च उम्मीदवार को मिल जाता है.
तीसरा बड़ा स्रोत है भ्रष्टाचार..
सत्तारुढ़ दल के मंत्री/विधायक या ओहदे प्राप्त नेताओं के पास अवैध धनोपार्जन के कई स्रोत रहते हैं इन सभी पैसों को ये लोग बेनामी अचल संपत्ति में तबदिल करके रखते हैं बाद में खुद के चुनाव में बेहिसाब पैसा खर्च करते हैं, कुछ सीट को छोड़ दें तो ज्यादातर सीट में जो उम्मीदवार खुद का पैसा खर्च कर सकता है पार्टी उसे टिकट देने को तरजीह देती है.
कुल-मिलाकर ये सब अवैध धन या काले धन का खेल है 5 साल लूटो फिर थोड़ा सा रकम बांट कर और दारू-मुर्गा में खर्च करके वोट लो, फिर वापस लूटो यह खेल चलता रहा है और शायद चलता रहेगा.. चुनाव में खर्च होने वाले बेशुमार दौलत के विषय में ऐसा नहीं है कि प्रशासन अनभिज्ञ रहता है, उन्हें सब पता होता है बल्कि उनकी देखरेख में संपन्न होता है कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. वे तो बस आदर्श आचार संहिता के पालन में अच्छा खासा ड्रामा करते हैं, दिखावे के लिए यदि कोई कमजोर आम आदमी मिल गया तो उसपर कार्यवाही करके अपना पीठ थपथपा लेते हैं.
ऐसा नहीं है कि ये सब बता कर मैं किसी का कोई ज्ञान बढ़ा रहा हूँ मैं तो बस ये बताना चाहता हूं कि जो भी भेंट सामग्री वोटरों को चुनाव के समय प्राप्त होता है उसमें उन्हें कृतज्ञ होने या नेता के प्रति एहसानमन्द होने की कतई जरूरत नहीं है अक्सर मैंने सुना है ग्रामीणों को कहते "जिसका खाए हैं उसीका ना गाएंगे?" अर्थात जिससे लाभ लिए हैं उसको ही ना वोट देंगे..
कितने भोले होते हैं ऐसे लोग जो रत्ती भर चीजों के मिल जाने से नैतिक बोध से भर जाते हैं जबकि कितने बेशर्म होते हैं नेता जो जनता की गाढ़ी कमाई को लूट-लूट कर अपनी तिजोरियां भरते हैं फिर भी उन्हें कोई नैतिकता या अपराधबोध नहीं होता..
चूंकि लेख पढ़ने में ज्यादा लोगों की रुचि नहीं होती अन्यथा अगली कड़ी में अधिकारी, नेता और व्यापारी अपना काला धन कैसे छिपाते हैं यह बताने की सोच रहा था,
खैर आपने धैर्य से इतना पढ़ा उसके लिए आपका आभार
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अकील अहमद अंसारी |
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